माथे पर नहीं थी कोइ शिकंज, ना मुख पर उलझन, कदम तेज़ थे, जोश अनोखा, आँखों में चमक नई थी, चहक रही वो जैसे मन ही मन, कुछ सपने बुनती डोल रही थी।
आई सवारी, तब उठा समान बिन बोले ही बोल रही थी । झटपट द्वार किए बन्द, स्काईबैग को तब रोशन ने उठाया, गाड़ी को फिर स्टेशन की राह पर दौड़ाया। प्लेटफॉर्म पहुंच कर सामान 💼 उतारा, लो अब बजने वाले थे बस बारा।
हुआ इन्तज़ार कुछ यूं लम्बा जब पढ़ा प्लेटफार्म पर रेल्वे का एलान जिसने जारी कर दिया ट्रेन लेट का फरमान । लम्हे फिर घंटों में बदले, तन्हा कैसे कटे सफर?
हुई शुरू शिरकत प्लेटफार्म पर, लगने लगी उठक बैठक, चार कदम आगे बढ़ते, दो कदम पीछे, बैचेनी जब और बढ़ी, चाय 🍵 की प्याली हाथ चढ़ी, आँखें थीं कि राह पर गड़ी, घड़ी -घड़ी निगाहें घड़ी पर अटक जातीं स्टेशन की घड़ी से बारम्बार मिलाती।
फिर भी सहज सरल भाव लिए, थकावट को छुपाए हुए बैठी रही चेहरे पर हल्की सी मुस्कान लिए , धड़कन कुछ तेज़ हुई जब इंजन की सीटी नें 🔉 आवाज़ दी। इंजन फिर दहाड़ा, हरी झंडी ने जब किया इशारा ।
ओझल फिर नज़रों से हो गई । थी कौन वो जो घंटो करके इन्तज़ार, थी न व्याकुल न लाचार। ममतामयी सूरत, वात्सल्य की मूरत।और कौन होगी वह? वह तो एक माँ ही होगी जो मन में मिलन की आस लिए, स्वयं ही चल दी बच्चों के पास न जाने कितने स्वप्न लिए ?
सच बड़ा ही खूबसूरत सफर होगा , मिलन का अहसास गज़ब होगा ।